Tuesday, January 8, 2008

शॉर्ट जींस

बेरोजगारी हटाने के कई गैबी नुस्खे बताए जाते हैं . कोई माँ काली के चौखट की भभूत मलता है तो कोई पीरों-फकीरों की मजार पर अगरबत्ती दिखाता है . व्यक्तिगत तौर पर मैंने कई दुर्धर्ष नाकारों को हनुमान जी का नाम लेकर पार उतरते देखा है . तो इन सबसे प्रेरित होकर मैंने भी हर शनिवार की शाम उनके दरबार में हाजिरी देनी शुरू कर दी थी .....शनिचर जब जकड लेता है तब अच्छे-अच्छों को रूला देता है . एक बजरंगबली ही थे जिन्होंने शनि महाराज को खूब पटकनियाँ दी थीं . इतनी कि शनिदेव का दर्द मिटाने को हिन्दु आज भी उस दिन तेल में दान-पुण्य करते हैं ( सरसों का तेल चोट में गुणकारी होता है ) जिससे कि शनि-महाराज हमारी सेवा से प्रसन्न होकर हमपर से अपना दुष्प्रभाव हटा लें .

ऐसी ही एक शाम मैं अपने मित्र के साथ मन्दिर में लड्डुओं का दोना लिए मत्था टेक रहा था ( बताता चलूँ कि गर्म-गर्म बेसन और मोतीचूर के लड्डुओं का हमारी भक्तिभावना बढाने में बहुत बड़ा हाथ है ) । .....मेरा मित्र मुझसे पहले खड़ा हुआ और अचानक से लड़खड़ा कर मेरे पैरों से टकरा गया . अपनी पूजा चढाकर पलटने पर मैंने पाया कि वहाँ तीन खूबसूरत कन्याएँ ठीक हमारे पीछे खड़ी थीं , एक तो मेरे साथ ही सिर नवा चुकी थी . उन्ही में से एक से टकराने से बचने के चक्कर में मेरा दोस्त डगमगा गया था . मन्दिर में मुख्य प्रतिमा के अलावा भी तीन-चार पूजास्थल हैं , जब हमदोनो उनकी ओर मुड़े तो सहसा वहाँ भी उन तीन-देवियों में से एक ने आकर ठीक हमारे सामने से मत्था टेक दिया . यही वो पल था जब हमारे नेत्रों पर से राजा निमी अचानक उत्प्रवास कर गए ( मिथक है कि उनका हमारी पलकों पर राज होता है और वो हमारी आँखों को लज्जा का आवरण देते हैं ) . कन्या ने शॉर्ट जींस धारण कर रखा था और मत्था टेकने के क्रम में वो हमारे समक्ष बिजली सी कौंधा गई थी.... श्री राम की प्रतीक्षा में जुड़े हाथ वाले हनुमान जी और उनके पीछे तस्वीरों में जड़े सभी महत्वपूर्ण देवी-देवता हमारी भक्तिभावना की रक्षा न कर पाए और एक बार फिर एक अप्सरा दो साधकों का तप भंग करने में सफल हो रही थी ....


कन्या नटखट थी ऐसा उसने अपने चितवनों से जाहिर कर दिया था . शिवलिंग के सामने जानबूझकर ये प्रसंग दुहराया गया . गौरांग ललना का कटिप्रदेश क्षणभर में ही हमारे ६० शनिवारों का पुण्य-प्रताप हरे लिए जा रहा था . पर तबतक भगवान् से ज़्यादा बेरोजगारी के भय ने हमारी सदबुद्धि को सचेत किया . हमने मन्दिर का घण्टा ज़ोर से बजाकर महावीर जी से क्षमादान की अपील कर डाली और शनि महाराज के नाम पर १ के बजाए ५ रुपए का सिक्का दान-पेटी में डाला . बाकी देवताओं की वक्र-दृष्टि हमपर पडती उससे पहले ही दोनों जने मन्दिर से बाहर हो लिए और लगे आपस में बालिका के माता-पिता को कोसने जो अपनी ललनाओं को पूजा-स्थलों में ऐसे कपडों में आने की अनुमती दे दिया करते हैं . अपनी भक्ति के डोल जाने से हो रही आत्मग्लानी पर थोड़ा परदा डालते हुए भी हमने चोर निगाहों से पुनः कन्या के दर्शन किए और ठठाह पड़े .......

ऐसे ही कुछ साल पहले एक क्लास के दौरान समाज में महिलाओं के ड्रेस-कोड को लेकर एक बहस छिड़ गई थी । आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेज़ी-साहित्य में मास्टर-डिग्री रखने वाले एक अग्रज महिलाओं के लिए थोड़ा नैतिक सलाहकार सा बनते हुए भारतीय-परिधानों की वकालत कर रहे थे और इस तर्क की हिमायत भी साथ थी कि पाश्चात्य-परिधानों को लड़कियों द्वारा अपनाए जाने के कारण लड़के उनसे छेड़खानी कर बैठते हैं !!!! अब देखिये मैं पश्चिमी पहनावे का अंध-प्रशंसक तो नही पर ये तर्क गले उतारना थोड़ा असहज था । मामला केवल परिधान का नही बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी है . हमारे लोकतंत्र के साथ-साथ हमारी संस्कृति हमें वैचारिक और निर्णय लेने में स्वतंत्रता के कई अवसर देती है . जहाँ तक मुझे लगता है पहनावे का चुनाव भी हमारा अपना व्यक्तिगत मामला है . अब आप सोच सकते हैं कि फिर तो कोई कैसे भी वस्त्र पहन ले ....नंगापन दिखलाता चले !! तो भाई मैं इसके भी खिलाफ हूँ पर मैं अपनी रूचि संयत तरीके से ज़ाहिर करना चाहूँगा न कि कोई वितंडा खड़ा करके या कोई ड्रेस-कोड थोपकर ...जितना मुझे अपनी रूचि की फिक्र है उतना ही सम्मान दूसरों के लिए तो देना ही होगा .....

मध्यम और निम्न-आय परिवारों में मूल्यों और आदर्शों की काफी चिंता रहती है ; बेटे घर का चिराग समझे जाते हैं और बेटियाँ पराया धन या फिर बोझ । आज यही परिवार अपनी बेटियों को न केवल दहलीज से बाहर जाने दे रहे हैं बल्कि उनपर भरोसा करते हुए और रूढिवादी समाज के भय से शंकालु हुए बगैर उन्हें पश्चिमी परिधानों को अपनाने की छूट भी मुहैया कर रहे हैं...मैं नही कहता कि कोई क्रांति हो गई या इससे लडकियां आधुनिक हो गईं पर क्या ये कम बड़ा बदलाव है कि अपनी बेटियों को गाहे-बगाहे जींस-टॉप पहने देख आजकल अमूमन माता-पिता का वात्सल्य ही उभरता है क्रोध नही......

जहाँ तक शैक्षणिक-परिसरों में स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए ड्रेस-कोड की बात है तो मैं इसका पुरजोर समर्थक रहा हूँ । शैक्षणिक-परिसरों में शिक्षा और व्यक्तित्व निर्माण का पलड़ा भारी रहना चाहिए न कि परिधानगत रूचि-स्वातंत्र्य का . सादे पहनावे के कारण न तो आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों में कुंठा ही पनपेगी और न ही भड़कीले कपड़ो के कारण परिसर अपनी गरिमा ही खोता नज़र आएगा ...

जहाँ तक छेड़खानी का मामला है और शोहदेपन को इस बात की आड़ दी जाती है कि भड़काऊ परिधानों से उनका संयम डोल जाता है जिससे वे "हरकत" कर बैठते तो फिर इसके आगे क्या बोला जा सकता है !!! तम्बाकू से रंगे दाँतों को देखकर चाहे जितनी घिन आए पर क्या आप उसे तोड़ देने के लिए उद्धत हो उठते हैं ? क्यूँ ? क्यूँकि डर है कि उन दाँतो का मालिक आप पर पिल पड़ेगा . यही डर इन शोहदों को नही होता कि उन्हें इनकी छेड़खानी की सज़ा भुगतनी होगी . कभी कम कपड़े पहने सुरक्षा से घिरी किसी महिला सेलिब्रिटी को छेड़ कर दिखाएँ..वास्तव में महिलाओं से जुड़े गरिमा-हनन जैसे गंभीर अपराध कम कपड़ो से ज़्यादा सामंती मिजाज़ से जुड़े होते हैं जिसपर बात करना कई बार हम पुरुषों के लिए अपने को आईना दिखाने जितना दुष्कर हो सकता है ॥

खैर ; मन्दिर की आत्मग्लानी तो श्मशान के वैराग्य की तरह काफूर हो गई और हम दोनों ही मित्रों ने उस दिन का टाइम भी नोट कर लिया है . क्या पता फिर मुलाकात हो जाए और इसी लेडी के लक् से हमारी किस्मत भी खुल जाए....

3 comments:

सुनीता शानू said...

वाह नीलाभ; अच्छा लिखा है...मुझे लगता है आजकल के बच्चे समझदार हो गये है...बेकार कपडा खराब करने से फ़ायदा क्या...जो पेंट छोटी हो जाये वो भी सही...ईलास्टिक खराब हो जाये वो भी सही.देखो पेंट छोटी हो गई है टोप भी छोटा हो गया है मगर कम से कम एक चीज तो वहीं की वहीं है...यही क्या कम है...अब दिखाई तो देगी ही न...एक बार मैने एक लड़की से पूछा कि तुम्हे शर्म नही आती तुम्हारा अंतःवस्त्र नजर आ रहा है...उसने कहा चाची सुनो पेंट आजकल लो वेस्ट पहनते है...टोप भी शोर्ट ही पहनते है...यह फ़ैशन है हम क्या करें मगर अंदर जो पहना है वह अपनी जगह ही है इसीलिये नजर आ रहा है...

Sanjeet Tripathi said...

धांसू!!
मंदिर का अता पता और समय हमें भी बताया जाए, बाकी जुगाड़ हम जमा लेंगे!
जय जुगाड़ ;)

Anonymous said...

कल्लर भाई,

तपभंग की चिंता ना करें, बालसुलभ शरारतें तो भगवान भी करते ही रहे हैं, भगवान कृष्ण पूतना को किसी और भी जगह तो काट सकते थे?

मुझे तो दया आ रही है शोहदों पर, बेचारे कितने सरल स्वभाव के होंगे जिन्हें मंदिर पर आस्था ना हो, तो संदेह भी नहीं है. किस्मत के मारे, मंदिर प्रांगण के रोमांच से महरूम हैं...

कल्लर की कलाकारी जारी रहे...