देवी जी की जय जय !! सभी को दशहरे की शुभकामनाएँ ! बुरी नज़रों से देवी माँ सबको बचाएँ ! अपना देश खुशहाल बने , जो लोग आतंक की भेंट चढ़े , चढ़ रहे हैं उन्हें भूलना नही .
उन्होंने मुझे भी निशाना बना लिया था , अपने भाइयों पर से मेरा भरोसा उठने लगा था..भूल गया था सॉबी,बॉबी,पप्पू, जुम्मन मियां ,निसार भाई,लालबाबू ,कैफी,बिट्टू,जावेद,इकबाल,अफाक,नदीम,इमा,रावी,यास्मिन,राहत,.....सभी को ,सब अचानक से मुसलमान हो गए थे एक के बाद एक...मैं हिंदू हो गया था अचानक ..काली टोपी , तलवार . बाज, लाठी ,मशाल ,किरोसीन ,सूरज,भाला,बर्छी,खुखरी,टायर,चिंगारी,फरसा,चिता,अफवाह,शिवलिंग,नंदी,त्रिशूल.....सब हो गया था मैं अचानक से....
अपने धर्मनिरपेक्ष रहने का फ़ायदा उठा रहा था मैं ..अपने को बता रहा था कि मैं ग़लत नही हूँ, ये मोहभंग है,सच्चाई सबके सामने है, आँखें मत चुराओ,जुम्मन तुम्हारे खरीदे नमकीन बिस्कुट नफरत की पुडिया में बांधता था,अपनी और से दो और जो गिन के मंगनिया डालता था वो तुम्हारा भरोसा जीतकर तुम्हे कत्ल करने को,..बिट्टू खेल में तुमसे जीत जाता था तुम्हे नीचा दिखाने को क्यूंकि तुम हिंदू थे...निसार भाई सौदा तौलता था तो क्या, सामने वाले बड़े नाले को गन्दा करता था तुम्हारे मुहल्ले पर मूत जाता था....ईद बकरीद में खूब दावत खाई है दोस्तों से , तुम्हारा त्रिवेदी दोस्त बच निकलता था साफ़, तुम ही लुटे जाते थे , दोस्त है,हिंदू मुसलमान बकवास, बिरयानी जिंदाबाद..वही असली धर्म है , कसम खुदा की सॉरी बजरंगबली की, बिरयानी खा के गाना गाने लगता था ,रूह आई मीन आत्मा तृप्त हो जाती थी ....बम फोड़ डाले , स्साले गद्दार , इतना गोस्त खाया है पेट भर कर, कभी न कभी जरूर मिलाया होगा उसमें..गद्दार गद्दार .....
दिल्ली,जयपुर,बंगलुरु,त्रिपुरा,बनारस, अयोध्या...सब हो गया था मैं ..इरफान,राहत,इकबाल..... इस्लामाबाद,लाहौर,ढाका,नोआखली,कारगिल,कांधार,सब्जीबाग,फुलवारी, हारुन- नगर, चाँद-तारा,मकबरा,सिलाईमशीन ,प्रेशर-कुकर..हो गए थे....भाड़ में गई समन्वित संस्कृति, ग़ज़लें ,दिलीप कुमार, आमिरखान...अकबर....अब तो बस ह्रतिक और अभिषेक और शिवाजी महाराज ....
हिंदू हिन्दी हिन्दुस्तान ,लड़ के लेगा पाकिस्तान..इतनी हिम्मत ..आजा मैदान में..खेल कबड्डी....सैल कबड्डी आस लाल मर गया प्रकाश लाल लाल लाल....अर्र अर्र ..प्रकाशलाल तो हिंदू है ,उसे कैसे मारे ..और कौन कौन लाल है..जवाहरलाल,मोतीलाल,धारीवाल,फरीदा जलाल अर्र अर्र वो तो लेडिज है..न..न..क्या हुआ लेडिज है तो , सालों ने हिन्दुओं की लड़कियों को रखैल बनाया,कन्भर्ट कर दिया सुशीला को सलमा में ..निकाह करके इज्ज़त लूट ली ,घर में बीवी के गुलाम बने, जान छिड़का,बाहर तो अपने लोगों में भेद से हँसे ,गाजियों की बराबरी की ,हिंदू की इज्ज़त ले ली,....
पर पर सुशीला तो सलमा हो गई थी फ़िर हिंदू हिंदू !...
बीच में मत टोकिए ..हिंदू हमेशा हिंदू रहा है रहेगा , देखिये केतनो कन्भर्ट कर लीजिये ..मुसलमान सेंदुर लगाता है बीवी को रसम में,,, कन्भेंट स्कूल की इसाई मैडम सब को न देखे हैं ,सब सेंदुर लगाती है..वो सेंत कैरेंस वाली मैडम ,हनुमान जी को मनता मानी तब जाके बेटा हुआ , हिंदू लोग तो हमेशा से हिंदुए रजिस्टर हुआ है ,दोसरा धर्म वाला भगवान् को केतनो मना लेओ लोग सुनवाई तो जहाँ रजिस्ट्री हुआ हैओहिजे होगा ...यही से न सब पगलाया हुआ है मन्दिर उंदीर को तोडे के पीछे यही कारन था , आज खुल्लमखुल्ला कुछो नही कर सकता ता बम चला रहा है एहनी....; अरे हम भी सेकुलर हैं पर इतना कारनामा देखे के बाद बर्दास्त नही होता है ..उ उ बच्चा को भूल गये,टिफिन लौटा रहा था अंकल अंकल कह के , का निकला बम ....संतोस नाम था ..हिंदू...!
पर, पर बम तो सब जगह चल रहा है ,पाकिस्तान में भी ..बेनजीर !...अरे ई लोग अपना कम मारकाट अहि , ...सिया सुन्नी अफ़घान पठान ...अपने में मार काट मचियले है सब ...हमरा ता डाउट है कि सब पहिले जादव था , गांधारी के श्राप कन्भर्ट हो जाए से पीछा छोड़ देगा का .इतना देमागी बैताल और लरंकाहा जात ..... .....
आप भी तो जादव है ...
फ़िर गडबडा गये आप ..हम किस्नौथ हैं,डायरेक्ट किरशन भगवान .कनुजिया मज्रौथा मत समझियेगा ...छत्रिय रहे हैं ...आर्य कौन थे , जानते है ..जादव ....
पर अभी तो ये भी नही सुलझा कि कहाँ से आए....
फ़िर टोक दिए ..केतना बार बोले हैं कि अंगरेजी बोलते समय अ ज्ञान विचार का बात बोलते समय टोकना नही चाहिए फ्लो टूट जाता है ..ता कहाँ थे हम ..आर्ज थे पशुपालक ई काम किसका है.... ,फ़िर पढिये जाके ऋग्वेद में यदु कबीला का नाम है ..ओकरे से निकला है यादव...फ़िर बे- लाइन कर दिए आप टोक के ...हम बोल रहे थे कि निचलका जादव सब कन्भर्ट हो गया होगा ,देखते नही है केतना पटता है जादव मुसलमान में ...खूनवा कुछ तो असर करेगा न...
अर्र अर्र अर्र .......सेवई, शोरबा ,खीर ,कबाब,कोरमा, तंदूरी,झटका... सराप सराप छप्प छप्प लप लप बलर बलर ब्लड ब्लड खून खून ..... ऐ पोजिटिव बी-नेगटिव ,हाँ हाँ एक लड़का है..बी-नेगेटिव बी-नेगेटिव ...एक यूनिट कब कहाँ कुर्जी होली फैमली ...क्या कमजोर ...कौन...लड़की...क्या मुसलमान ...खाजपुरा ...बगल में ही तो है ..सुना है शिव मन्दिर मुसलमान बनवाया एकदम सफ़ेद ..एकदम मस्जिद के बगल में ....मुसलमान काहे....जमीन जुमुं का मामला होगा,दबा लिया होगा ..तो मस्जिद भी तो बना सकता था ...नही न समझे ..मन्दिर ज्यादा सेफ है फ़िर सेकुलर......बी-नेगटिव बी-नेगटिव...कुदरत-उ-ल्लाह...सागर..नमस्ते..आदाब.....छोटी बहन बीमार...आपका ब्लड बी-नेगटिव ..जरूरत..अरे खुशी से...शुक्रिया...कर्तव्य..मानवता आदमीयत....त्रिवेदी.....जियो प्यारे मुसलमानी में अपना खून डाल ही आए...साबाश...हर हर महादेव...हिंदू बी-नेगटिव मुस्लिम बी-नेगटिव......जांघ को काटके उसमे गंगाजल की सीसी छुपा लो फ़िर मक्का में घुसकर उडेल दो सब मुस्लिम ख़त्म एक बार में..सच्च....
प्रेम से बोलिए दुर्गा माई की जय ....हॉर्लिक्स दादा उ चंदा नही दे रहा है ....
कौन रे...
अरे उ टेलर मास्टर मिया जी...ओक्कर कौनो साला अबकी दरोगा हो गया है एहे थाना में...
ह्म्म्म...रुक बताते हैं ओकरा...
कहाँ चले हॉर्लिक्स दादा...
अरे शर्मा जी उ टेलारवा चंदा नही दे रहा है...
तुमको पहले ही कहे थे इसको यहाँ टिकने मत दो पर तुमको तो बीवी का अंगिया सिलवाना था घर के बगल में....
अब कहे टांग खींच रहे हैं...
सुनो क्यूँ न अबकी महिषासुर का थोड़ा लंबा दाढ़ी रख दें
.......झमझम करक करक....म से महिषासुर म से .........अपमान... जलालत... बदला... पत्नी.. सुंदर अंगिया...हिंदू अंगिया...मुस्लिम चोली....हिंदू धागा मुस्लिम धागा...भागा भागा .......पकडो पकडो....
क्या पकडूं किसका पकडूं समझ नही आता...कान पैर गट्टा झोंटा .....अकेले कुछ न पकड़ सकते हैं न कुछ उखाड़ सकते हैं ,जो कहते है आतंकवाद पुरी दुनिया की समस्या है झूठें हैं...ये मेरे बगल की समस्या है,गरीबी,बेरोजगारी की तरह नस-नस में बिंध गई है ये भी ..खून जहर हो रहा है ....बहुत बडा है सर्व व्यापी है कहकर डराते है , मुझे कमजोर बनाते हैं...मैं ही आतंकी हूँ और मैं ही आतंक भी...मुझमे ही समाधान हैं ..बुश ,मनमोहन,जरदारी जो करें मुझे जुम्मन से मिलना होगा , इकबाल से गप्पें लड़ानी होगी, ईद मनानी होगी,सेवई खानी होगी ,बिरयानी की मस्ती में खोना होगा...कुर्ता सिलाना होगा,टेलर मास्टर को वापिस बुलाकर हॉर्लिक्स की बीवी की अंगिया सिलानी होगी, बिट्टू के साथ कबड्डी खेलनी होगी..सबकुछ फ़िर से करूँगा फ़िर से .....मैं आतंक के बम का शिकार नही बनूँगा कभी नही...मै न हिंदू न मुसलमान .......ssss....ssss...कबीर.. गाँधी ...नागार्जुन ...मुक्तिबोध...अमृता प्रीतम ..कमलेश्वर...पप्पू..सौबी..बॉबी...छोटू..टिंकू...पिंकू...बबलू...सोनू..गूंजा....राहत...कैफी...कमल..कमाल...बालक..बिल्लू...मुन्नू..मुन्ना....आप भी.... मै भी....हम सभी.
कल्लर का टेन्ट
Tuesday, October 7, 2008
Tuesday, January 8, 2008
शॉर्ट जींस
बेरोजगारी हटाने के कई गैबी नुस्खे बताए जाते हैं . कोई माँ काली के चौखट की भभूत मलता है तो कोई पीरों-फकीरों की मजार पर अगरबत्ती दिखाता है . व्यक्तिगत तौर पर मैंने कई दुर्धर्ष नाकारों को हनुमान जी का नाम लेकर पार उतरते देखा है . तो इन सबसे प्रेरित होकर मैंने भी हर शनिवार की शाम उनके दरबार में हाजिरी देनी शुरू कर दी थी .....शनिचर जब जकड लेता है तब अच्छे-अच्छों को रूला देता है . एक बजरंगबली ही थे जिन्होंने शनि महाराज को खूब पटकनियाँ दी थीं . इतनी कि शनिदेव का दर्द मिटाने को हिन्दु आज भी उस दिन तेल में दान-पुण्य करते हैं ( सरसों का तेल चोट में गुणकारी होता है ) जिससे कि शनि-महाराज हमारी सेवा से प्रसन्न होकर हमपर से अपना दुष्प्रभाव हटा लें .
ऐसी ही एक शाम मैं अपने मित्र के साथ मन्दिर में लड्डुओं का दोना लिए मत्था टेक रहा था ( बताता चलूँ कि गर्म-गर्म बेसन और मोतीचूर के लड्डुओं का हमारी भक्तिभावना बढाने में बहुत बड़ा हाथ है ) । .....मेरा मित्र मुझसे पहले खड़ा हुआ और अचानक से लड़खड़ा कर मेरे पैरों से टकरा गया . अपनी पूजा चढाकर पलटने पर मैंने पाया कि वहाँ तीन खूबसूरत कन्याएँ ठीक हमारे पीछे खड़ी थीं , एक तो मेरे साथ ही सिर नवा चुकी थी . उन्ही में से एक से टकराने से बचने के चक्कर में मेरा दोस्त डगमगा गया था . मन्दिर में मुख्य प्रतिमा के अलावा भी तीन-चार पूजास्थल हैं , जब हमदोनो उनकी ओर मुड़े तो सहसा वहाँ भी उन तीन-देवियों में से एक ने आकर ठीक हमारे सामने से मत्था टेक दिया . यही वो पल था जब हमारे नेत्रों पर से राजा निमी अचानक उत्प्रवास कर गए ( मिथक है कि उनका हमारी पलकों पर राज होता है और वो हमारी आँखों को लज्जा का आवरण देते हैं ) . कन्या ने शॉर्ट जींस धारण कर रखा था और मत्था टेकने के क्रम में वो हमारे समक्ष बिजली सी कौंधा गई थी.... श्री राम की प्रतीक्षा में जुड़े हाथ वाले हनुमान जी और उनके पीछे तस्वीरों में जड़े सभी महत्वपूर्ण देवी-देवता हमारी भक्तिभावना की रक्षा न कर पाए और एक बार फिर एक अप्सरा दो साधकों का तप भंग करने में सफल हो रही थी ....
कन्या नटखट थी ऐसा उसने अपने चितवनों से जाहिर कर दिया था . शिवलिंग के सामने जानबूझकर ये प्रसंग दुहराया गया . गौरांग ललना का कटिप्रदेश क्षणभर में ही हमारे ६० शनिवारों का पुण्य-प्रताप हरे लिए जा रहा था . पर तबतक भगवान् से ज़्यादा बेरोजगारी के भय ने हमारी सदबुद्धि को सचेत किया . हमने मन्दिर का घण्टा ज़ोर से बजाकर महावीर जी से क्षमादान की अपील कर डाली और शनि महाराज के नाम पर १ के बजाए ५ रुपए का सिक्का दान-पेटी में डाला . बाकी देवताओं की वक्र-दृष्टि हमपर पडती उससे पहले ही दोनों जने मन्दिर से बाहर हो लिए और लगे आपस में बालिका के माता-पिता को कोसने जो अपनी ललनाओं को पूजा-स्थलों में ऐसे कपडों में आने की अनुमती दे दिया करते हैं . अपनी भक्ति के डोल जाने से हो रही आत्मग्लानी पर थोड़ा परदा डालते हुए भी हमने चोर निगाहों से पुनः कन्या के दर्शन किए और ठठाह पड़े .......
ऐसे ही कुछ साल पहले एक क्लास के दौरान समाज में महिलाओं के ड्रेस-कोड को लेकर एक बहस छिड़ गई थी । आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेज़ी-साहित्य में मास्टर-डिग्री रखने वाले एक अग्रज महिलाओं के लिए थोड़ा नैतिक सलाहकार सा बनते हुए भारतीय-परिधानों की वकालत कर रहे थे और इस तर्क की हिमायत भी साथ थी कि पाश्चात्य-परिधानों को लड़कियों द्वारा अपनाए जाने के कारण लड़के उनसे छेड़खानी कर बैठते हैं !!!! अब देखिये मैं पश्चिमी पहनावे का अंध-प्रशंसक तो नही पर ये तर्क गले उतारना थोड़ा असहज था । मामला केवल परिधान का नही बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी है . हमारे लोकतंत्र के साथ-साथ हमारी संस्कृति हमें वैचारिक और निर्णय लेने में स्वतंत्रता के कई अवसर देती है . जहाँ तक मुझे लगता है पहनावे का चुनाव भी हमारा अपना व्यक्तिगत मामला है . अब आप सोच सकते हैं कि फिर तो कोई कैसे भी वस्त्र पहन ले ....नंगापन दिखलाता चले !! तो भाई मैं इसके भी खिलाफ हूँ पर मैं अपनी रूचि संयत तरीके से ज़ाहिर करना चाहूँगा न कि कोई वितंडा खड़ा करके या कोई ड्रेस-कोड थोपकर ...जितना मुझे अपनी रूचि की फिक्र है उतना ही सम्मान दूसरों के लिए तो देना ही होगा .....
मध्यम और निम्न-आय परिवारों में मूल्यों और आदर्शों की काफी चिंता रहती है ; बेटे घर का चिराग समझे जाते हैं और बेटियाँ पराया धन या फिर बोझ । आज यही परिवार अपनी बेटियों को न केवल दहलीज से बाहर जाने दे रहे हैं बल्कि उनपर भरोसा करते हुए और रूढिवादी समाज के भय से शंकालु हुए बगैर उन्हें पश्चिमी परिधानों को अपनाने की छूट भी मुहैया कर रहे हैं...मैं नही कहता कि कोई क्रांति हो गई या इससे लडकियां आधुनिक हो गईं पर क्या ये कम बड़ा बदलाव है कि अपनी बेटियों को गाहे-बगाहे जींस-टॉप पहने देख आजकल अमूमन माता-पिता का वात्सल्य ही उभरता है क्रोध नही......
जहाँ तक शैक्षणिक-परिसरों में स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए ड्रेस-कोड की बात है तो मैं इसका पुरजोर समर्थक रहा हूँ । शैक्षणिक-परिसरों में शिक्षा और व्यक्तित्व निर्माण का पलड़ा भारी रहना चाहिए न कि परिधानगत रूचि-स्वातंत्र्य का . सादे पहनावे के कारण न तो आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों में कुंठा ही पनपेगी और न ही भड़कीले कपड़ो के कारण परिसर अपनी गरिमा ही खोता नज़र आएगा ...
जहाँ तक छेड़खानी का मामला है और शोहदेपन को इस बात की आड़ दी जाती है कि भड़काऊ परिधानों से उनका संयम डोल जाता है जिससे वे "हरकत" कर बैठते तो फिर इसके आगे क्या बोला जा सकता है !!! तम्बाकू से रंगे दाँतों को देखकर चाहे जितनी घिन आए पर क्या आप उसे तोड़ देने के लिए उद्धत हो उठते हैं ? क्यूँ ? क्यूँकि डर है कि उन दाँतो का मालिक आप पर पिल पड़ेगा . यही डर इन शोहदों को नही होता कि उन्हें इनकी छेड़खानी की सज़ा भुगतनी होगी . कभी कम कपड़े पहने सुरक्षा से घिरी किसी महिला सेलिब्रिटी को छेड़ कर दिखाएँ..वास्तव में महिलाओं से जुड़े गरिमा-हनन जैसे गंभीर अपराध कम कपड़ो से ज़्यादा सामंती मिजाज़ से जुड़े होते हैं जिसपर बात करना कई बार हम पुरुषों के लिए अपने को आईना दिखाने जितना दुष्कर हो सकता है ॥
खैर ; मन्दिर की आत्मग्लानी तो श्मशान के वैराग्य की तरह काफूर हो गई और हम दोनों ही मित्रों ने उस दिन का टाइम भी नोट कर लिया है . क्या पता फिर मुलाकात हो जाए और इसी लेडी के लक् से हमारी किस्मत भी खुल जाए....
ऐसी ही एक शाम मैं अपने मित्र के साथ मन्दिर में लड्डुओं का दोना लिए मत्था टेक रहा था ( बताता चलूँ कि गर्म-गर्म बेसन और मोतीचूर के लड्डुओं का हमारी भक्तिभावना बढाने में बहुत बड़ा हाथ है ) । .....मेरा मित्र मुझसे पहले खड़ा हुआ और अचानक से लड़खड़ा कर मेरे पैरों से टकरा गया . अपनी पूजा चढाकर पलटने पर मैंने पाया कि वहाँ तीन खूबसूरत कन्याएँ ठीक हमारे पीछे खड़ी थीं , एक तो मेरे साथ ही सिर नवा चुकी थी . उन्ही में से एक से टकराने से बचने के चक्कर में मेरा दोस्त डगमगा गया था . मन्दिर में मुख्य प्रतिमा के अलावा भी तीन-चार पूजास्थल हैं , जब हमदोनो उनकी ओर मुड़े तो सहसा वहाँ भी उन तीन-देवियों में से एक ने आकर ठीक हमारे सामने से मत्था टेक दिया . यही वो पल था जब हमारे नेत्रों पर से राजा निमी अचानक उत्प्रवास कर गए ( मिथक है कि उनका हमारी पलकों पर राज होता है और वो हमारी आँखों को लज्जा का आवरण देते हैं ) . कन्या ने शॉर्ट जींस धारण कर रखा था और मत्था टेकने के क्रम में वो हमारे समक्ष बिजली सी कौंधा गई थी.... श्री राम की प्रतीक्षा में जुड़े हाथ वाले हनुमान जी और उनके पीछे तस्वीरों में जड़े सभी महत्वपूर्ण देवी-देवता हमारी भक्तिभावना की रक्षा न कर पाए और एक बार फिर एक अप्सरा दो साधकों का तप भंग करने में सफल हो रही थी ....
कन्या नटखट थी ऐसा उसने अपने चितवनों से जाहिर कर दिया था . शिवलिंग के सामने जानबूझकर ये प्रसंग दुहराया गया . गौरांग ललना का कटिप्रदेश क्षणभर में ही हमारे ६० शनिवारों का पुण्य-प्रताप हरे लिए जा रहा था . पर तबतक भगवान् से ज़्यादा बेरोजगारी के भय ने हमारी सदबुद्धि को सचेत किया . हमने मन्दिर का घण्टा ज़ोर से बजाकर महावीर जी से क्षमादान की अपील कर डाली और शनि महाराज के नाम पर १ के बजाए ५ रुपए का सिक्का दान-पेटी में डाला . बाकी देवताओं की वक्र-दृष्टि हमपर पडती उससे पहले ही दोनों जने मन्दिर से बाहर हो लिए और लगे आपस में बालिका के माता-पिता को कोसने जो अपनी ललनाओं को पूजा-स्थलों में ऐसे कपडों में आने की अनुमती दे दिया करते हैं . अपनी भक्ति के डोल जाने से हो रही आत्मग्लानी पर थोड़ा परदा डालते हुए भी हमने चोर निगाहों से पुनः कन्या के दर्शन किए और ठठाह पड़े .......
ऐसे ही कुछ साल पहले एक क्लास के दौरान समाज में महिलाओं के ड्रेस-कोड को लेकर एक बहस छिड़ गई थी । आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेज़ी-साहित्य में मास्टर-डिग्री रखने वाले एक अग्रज महिलाओं के लिए थोड़ा नैतिक सलाहकार सा बनते हुए भारतीय-परिधानों की वकालत कर रहे थे और इस तर्क की हिमायत भी साथ थी कि पाश्चात्य-परिधानों को लड़कियों द्वारा अपनाए जाने के कारण लड़के उनसे छेड़खानी कर बैठते हैं !!!! अब देखिये मैं पश्चिमी पहनावे का अंध-प्रशंसक तो नही पर ये तर्क गले उतारना थोड़ा असहज था । मामला केवल परिधान का नही बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी है . हमारे लोकतंत्र के साथ-साथ हमारी संस्कृति हमें वैचारिक और निर्णय लेने में स्वतंत्रता के कई अवसर देती है . जहाँ तक मुझे लगता है पहनावे का चुनाव भी हमारा अपना व्यक्तिगत मामला है . अब आप सोच सकते हैं कि फिर तो कोई कैसे भी वस्त्र पहन ले ....नंगापन दिखलाता चले !! तो भाई मैं इसके भी खिलाफ हूँ पर मैं अपनी रूचि संयत तरीके से ज़ाहिर करना चाहूँगा न कि कोई वितंडा खड़ा करके या कोई ड्रेस-कोड थोपकर ...जितना मुझे अपनी रूचि की फिक्र है उतना ही सम्मान दूसरों के लिए तो देना ही होगा .....
मध्यम और निम्न-आय परिवारों में मूल्यों और आदर्शों की काफी चिंता रहती है ; बेटे घर का चिराग समझे जाते हैं और बेटियाँ पराया धन या फिर बोझ । आज यही परिवार अपनी बेटियों को न केवल दहलीज से बाहर जाने दे रहे हैं बल्कि उनपर भरोसा करते हुए और रूढिवादी समाज के भय से शंकालु हुए बगैर उन्हें पश्चिमी परिधानों को अपनाने की छूट भी मुहैया कर रहे हैं...मैं नही कहता कि कोई क्रांति हो गई या इससे लडकियां आधुनिक हो गईं पर क्या ये कम बड़ा बदलाव है कि अपनी बेटियों को गाहे-बगाहे जींस-टॉप पहने देख आजकल अमूमन माता-पिता का वात्सल्य ही उभरता है क्रोध नही......
जहाँ तक शैक्षणिक-परिसरों में स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए ड्रेस-कोड की बात है तो मैं इसका पुरजोर समर्थक रहा हूँ । शैक्षणिक-परिसरों में शिक्षा और व्यक्तित्व निर्माण का पलड़ा भारी रहना चाहिए न कि परिधानगत रूचि-स्वातंत्र्य का . सादे पहनावे के कारण न तो आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों में कुंठा ही पनपेगी और न ही भड़कीले कपड़ो के कारण परिसर अपनी गरिमा ही खोता नज़र आएगा ...
जहाँ तक छेड़खानी का मामला है और शोहदेपन को इस बात की आड़ दी जाती है कि भड़काऊ परिधानों से उनका संयम डोल जाता है जिससे वे "हरकत" कर बैठते तो फिर इसके आगे क्या बोला जा सकता है !!! तम्बाकू से रंगे दाँतों को देखकर चाहे जितनी घिन आए पर क्या आप उसे तोड़ देने के लिए उद्धत हो उठते हैं ? क्यूँ ? क्यूँकि डर है कि उन दाँतो का मालिक आप पर पिल पड़ेगा . यही डर इन शोहदों को नही होता कि उन्हें इनकी छेड़खानी की सज़ा भुगतनी होगी . कभी कम कपड़े पहने सुरक्षा से घिरी किसी महिला सेलिब्रिटी को छेड़ कर दिखाएँ..वास्तव में महिलाओं से जुड़े गरिमा-हनन जैसे गंभीर अपराध कम कपड़ो से ज़्यादा सामंती मिजाज़ से जुड़े होते हैं जिसपर बात करना कई बार हम पुरुषों के लिए अपने को आईना दिखाने जितना दुष्कर हो सकता है ॥
खैर ; मन्दिर की आत्मग्लानी तो श्मशान के वैराग्य की तरह काफूर हो गई और हम दोनों ही मित्रों ने उस दिन का टाइम भी नोट कर लिया है . क्या पता फिर मुलाकात हो जाए और इसी लेडी के लक् से हमारी किस्मत भी खुल जाए....
Monday, December 31, 2007
खुमार
नए साऽऽल का पहलाऽ जाऽम आपके नाम HAPPY NEW YEAR.... भई जाम तो उठाया नही कभी अपने हाथों से पर नए साल के आने पर जो नशा छाता है उसकी खुमारी में हम भी डोले हैं कई बार॥ पूरी दुनिया में सबको एक साथ ( टाईम जोन्स की याद न दिलाएँ ) एक नई चीज़ मिल जाती है । कोई मातम न हो या किसी की देनदारी न हो तो सभी खुश भी होते हैं . सुरा-साधक अपनी साधना का प्रसाद पाकर मतवाले हुए जाते हैं और गली के कुत्ते उनके सुर में सुर मिलाते है अलबत्ता डरे हुए कि पगला है...
आज जगन्नथवा की बड़ी याद आ रही है . भारी पियक्कड़ ! मेरे दोस्त का कहना था कि अगर इसके देह में सीरिंज भोंका जाए तो खून के बदले शराब निकलेगा !! साले का बदन शराब से भभकता है हर समय ... यकीन मानिये उसको देखते ही आप सीरिंज वाली बात को मान लेते .पूरी शराब की बोतल लगता था . इकहरा लिजलिजा बदन , बोतल के जैसी पतली होती गरदन तिसपर ढ़क्कननुमा खोपडी !! रास्ते में मिलता तो पूरे ज़ोर से आवाज़ लगाता ' परनाम मालिक '.. माली हालत तो कमजोर थी ही शराबखोरी ने और भी कंगला बना दिया था . एक दिन हिलता-काँपता मेरे घर आया और घिघियाने लगा कि घर में खाए लगी न हई..मेहरारू (बीवी) चावल लावे लगी जे पइसा देलइ हल ओकरा के पी गेली....अब समझ न आता था कि इसे गालियाँ दूँ,धकियाऊँ या सिर तोड़ दूँ॥पर इतनी ज़ोर की हँसी आई कि मैं भी हैरान रह गया अपने पर । एक दस का नोट आगे किया और धमकाया कि चावल खरीद के सीधे घर जो..
पियक्कड़ भारी था पर हराम की नही पीता था . मेरा दोस्त उससे गाहे-बगाहे काम लेता रहता था . काम क्या ख़ाक करता शरीर में ताकत तो थी नही , दारू नही चढाता था तो थरथराता था खड़े-खड़े ..... मैंने भी दो-एक बार घर में झाड़-जंजाल साफ़ करने उसे बुलवा भेजा था । आया था पूरे जोश से, खुरपी-कुदाल तलब कर लग गया काम पर . मैंने भी देखा कि भई मेहनती है फुर्ती से काम करता है . पर घंटा लगते न लगते लगा काँपने और बोला कि अब न होतवा हमरा से , कुछ दे दीं त तनी बगले से ताडी पी के आवी लिक तनी तागद आ जाई त अपने के काम करब.......मन तो हुआ कि साले की गरदन मरोड़ दूँ पर खून का घूँट पी कर रह गया और पाँच का सिक्का उसकी तरफ किया .........................
आप उसके लौटकर आने का इंतज़ार तो नही कर रहे न.....
शराबियों से मुझे चिढ है , जो संयत रहते है उनसे शिकायत नही पर बहक कर दूसरो पर आफत लाने वाले वालों पर शैतान का कोप लानत करने में मुझे कोई गुरेज नही . मैंने कई बार पियक्कड़ों को साइकल , मोटरबाइक चलाकर दूसरों को धक्का मारते देखा है जिनमे कुछ गम्भीर रूप से घायल भी हो गए . मुहल्ले में एक अच्छे पद पर स्थापित श्रीमान अक्सर पिनक में अपने परिवार वालों को पीट डाला करते थे , अस्पताल जाकर पट्टियाँ करवाने की भी नौबत आई कई बार.. दिहाड़ी पर काम करने वाले शाम को नकदी हाथ में आते ही अड्डे पर पहुँचकर गला तर करते हैं . पूछने पर बताया कि कमरतोड़ मेहनत के बाद दारू उनके लिए संजीवनी बूटी है....मुझे नही मालूम के इसमें कितनी सच्चाई है पर हर शराबी के पास अपना एक बहाना ज़रूर होता है . देवदास पारो के ग़म में पीने लगा तो शराबी के " विक्की बाबू " को अपने बाप से शिकायत थी , मेरा दोस्त आर्मी का लाइफ़स्टाईल है कहकर पीता है...
हमारे देवता भी सोमरस के चाहने वाले थे , पौराणिक साधकों ने सोमरस पिला-पिलाकर कई बार अपना मतलब इन देवताओं से निकलवाया है . तंत्र-साधना के पांच-मकारों में मदिरा भी एक है....मुग़लों में कई भारी अफीमची थे .कई शहजादे अफीम और सुरा की भेंट चढ़ गए ..विदेशी शासक भी सुरा के कद्रदान थे इतने कि हमारी मसाला फिल्मों में बच रहा ऐंग्लो-इंडियन अभी भी दारू की बाटली हाथ में लिए फिरता है . सुन रक्खा है कि लेखक,सम्पादक,खबरनवीस,समाजसेवी,राजनेता और बाबा लोग भी ख़ूब पीते हैं ...अल्लाह खैर करे॥
नशा और अपराध पर कई सेमिनार होते हैं और नए शोध भी आते रहते हैं हमेशा .किसी को इससे इनकार नही कि नशा आपराधिक गतिविधियों में उत्प्रेरक का काम करता है . हमारे ही मुहल्ले में आजकल स्मैकियरों की तादाद बढ़ गई है ये १३-१४ साल के छोटे गरीब लड़के हैं जो एक कोने में छिपकर तो कभी-कभी सरेआम नशा खींचते हैं..पता चला कि इन्हे नशे की लत लगवाकर इनसे चोरियाँ करवाई जाती हैं !!! नशा न कर पाने की हालत में ये इतने उग्र और बेबस हो जाते हैं कि कुछ भी करते हैं. एक बार एक लड़का ईंट का अद्धा लिए चाहरदिवारी के लिए खडे एक ऐसे पिलर पर लगातार चोट कर रहा था जिसे छेनियाँ न तोड़ पाएँ पर नशे का जुनून उस पर एस कदर हावी था कि उसने चोट कर-करके पिलर को फोड़ ही डाला और उसमे कि छड़ निकालकर कबाडी की दुकान की ओर मज़े से चल पड़ा.... सुना है कि बिहार , यूपी , से पंजाब आदि राज्यों में जाने वाले मजदूरों को ऐसे ही नशे का आदी बनाकर काम लेते हैं इनके ठेकेदार ......
जगन्नथवा मर गया पिछले साल । अन्तिम बार जब देखा था उसे तो एक गुलाबी रंग का पुराना नाईट-सूट , जिसे मेरे दोस्त ने उसे दे दिया था , को पहनकर अपने यार-दोस्तों में जमा हुआ अपने पीले दाँत निपोड़े हँस रहा था और होश में था . मुझे देखकर थोड़ा उचका और ज़ोर लगाकर बोला ' परनाम मालिक '... उसकी आवाज़ अबतक कानों में है...
मेरा दोस्त तो खूब पीने लगा है पर जगन्नथवा की याद मुझे शायद पियक्कड़ न होने दे॥भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे.....
नए साल में आपके लिए भी यही मनोकामना और अभिलाषा कि आपका जीवन सुरमय हो सुरामय नही....वैसे एक-दो बार बहाने चल सकते हैं कोई गिला करे तो गा उठियेगा - नशेऽ में कौन नही हैऽऽ मुझे बतावो ज़रा..
आज जगन्नथवा की बड़ी याद आ रही है . भारी पियक्कड़ ! मेरे दोस्त का कहना था कि अगर इसके देह में सीरिंज भोंका जाए तो खून के बदले शराब निकलेगा !! साले का बदन शराब से भभकता है हर समय ... यकीन मानिये उसको देखते ही आप सीरिंज वाली बात को मान लेते .पूरी शराब की बोतल लगता था . इकहरा लिजलिजा बदन , बोतल के जैसी पतली होती गरदन तिसपर ढ़क्कननुमा खोपडी !! रास्ते में मिलता तो पूरे ज़ोर से आवाज़ लगाता ' परनाम मालिक '.. माली हालत तो कमजोर थी ही शराबखोरी ने और भी कंगला बना दिया था . एक दिन हिलता-काँपता मेरे घर आया और घिघियाने लगा कि घर में खाए लगी न हई..मेहरारू (बीवी) चावल लावे लगी जे पइसा देलइ हल ओकरा के पी गेली....अब समझ न आता था कि इसे गालियाँ दूँ,धकियाऊँ या सिर तोड़ दूँ॥पर इतनी ज़ोर की हँसी आई कि मैं भी हैरान रह गया अपने पर । एक दस का नोट आगे किया और धमकाया कि चावल खरीद के सीधे घर जो..
पियक्कड़ भारी था पर हराम की नही पीता था . मेरा दोस्त उससे गाहे-बगाहे काम लेता रहता था . काम क्या ख़ाक करता शरीर में ताकत तो थी नही , दारू नही चढाता था तो थरथराता था खड़े-खड़े ..... मैंने भी दो-एक बार घर में झाड़-जंजाल साफ़ करने उसे बुलवा भेजा था । आया था पूरे जोश से, खुरपी-कुदाल तलब कर लग गया काम पर . मैंने भी देखा कि भई मेहनती है फुर्ती से काम करता है . पर घंटा लगते न लगते लगा काँपने और बोला कि अब न होतवा हमरा से , कुछ दे दीं त तनी बगले से ताडी पी के आवी लिक तनी तागद आ जाई त अपने के काम करब.......मन तो हुआ कि साले की गरदन मरोड़ दूँ पर खून का घूँट पी कर रह गया और पाँच का सिक्का उसकी तरफ किया .........................
आप उसके लौटकर आने का इंतज़ार तो नही कर रहे न.....
शराबियों से मुझे चिढ है , जो संयत रहते है उनसे शिकायत नही पर बहक कर दूसरो पर आफत लाने वाले वालों पर शैतान का कोप लानत करने में मुझे कोई गुरेज नही . मैंने कई बार पियक्कड़ों को साइकल , मोटरबाइक चलाकर दूसरों को धक्का मारते देखा है जिनमे कुछ गम्भीर रूप से घायल भी हो गए . मुहल्ले में एक अच्छे पद पर स्थापित श्रीमान अक्सर पिनक में अपने परिवार वालों को पीट डाला करते थे , अस्पताल जाकर पट्टियाँ करवाने की भी नौबत आई कई बार.. दिहाड़ी पर काम करने वाले शाम को नकदी हाथ में आते ही अड्डे पर पहुँचकर गला तर करते हैं . पूछने पर बताया कि कमरतोड़ मेहनत के बाद दारू उनके लिए संजीवनी बूटी है....मुझे नही मालूम के इसमें कितनी सच्चाई है पर हर शराबी के पास अपना एक बहाना ज़रूर होता है . देवदास पारो के ग़म में पीने लगा तो शराबी के " विक्की बाबू " को अपने बाप से शिकायत थी , मेरा दोस्त आर्मी का लाइफ़स्टाईल है कहकर पीता है...
हमारे देवता भी सोमरस के चाहने वाले थे , पौराणिक साधकों ने सोमरस पिला-पिलाकर कई बार अपना मतलब इन देवताओं से निकलवाया है . तंत्र-साधना के पांच-मकारों में मदिरा भी एक है....मुग़लों में कई भारी अफीमची थे .कई शहजादे अफीम और सुरा की भेंट चढ़ गए ..विदेशी शासक भी सुरा के कद्रदान थे इतने कि हमारी मसाला फिल्मों में बच रहा ऐंग्लो-इंडियन अभी भी दारू की बाटली हाथ में लिए फिरता है . सुन रक्खा है कि लेखक,सम्पादक,खबरनवीस,समाजसेवी,राजनेता और बाबा लोग भी ख़ूब पीते हैं ...अल्लाह खैर करे॥
नशा और अपराध पर कई सेमिनार होते हैं और नए शोध भी आते रहते हैं हमेशा .किसी को इससे इनकार नही कि नशा आपराधिक गतिविधियों में उत्प्रेरक का काम करता है . हमारे ही मुहल्ले में आजकल स्मैकियरों की तादाद बढ़ गई है ये १३-१४ साल के छोटे गरीब लड़के हैं जो एक कोने में छिपकर तो कभी-कभी सरेआम नशा खींचते हैं..पता चला कि इन्हे नशे की लत लगवाकर इनसे चोरियाँ करवाई जाती हैं !!! नशा न कर पाने की हालत में ये इतने उग्र और बेबस हो जाते हैं कि कुछ भी करते हैं. एक बार एक लड़का ईंट का अद्धा लिए चाहरदिवारी के लिए खडे एक ऐसे पिलर पर लगातार चोट कर रहा था जिसे छेनियाँ न तोड़ पाएँ पर नशे का जुनून उस पर एस कदर हावी था कि उसने चोट कर-करके पिलर को फोड़ ही डाला और उसमे कि छड़ निकालकर कबाडी की दुकान की ओर मज़े से चल पड़ा.... सुना है कि बिहार , यूपी , से पंजाब आदि राज्यों में जाने वाले मजदूरों को ऐसे ही नशे का आदी बनाकर काम लेते हैं इनके ठेकेदार ......
जगन्नथवा मर गया पिछले साल । अन्तिम बार जब देखा था उसे तो एक गुलाबी रंग का पुराना नाईट-सूट , जिसे मेरे दोस्त ने उसे दे दिया था , को पहनकर अपने यार-दोस्तों में जमा हुआ अपने पीले दाँत निपोड़े हँस रहा था और होश में था . मुझे देखकर थोड़ा उचका और ज़ोर लगाकर बोला ' परनाम मालिक '... उसकी आवाज़ अबतक कानों में है...
मेरा दोस्त तो खूब पीने लगा है पर जगन्नथवा की याद मुझे शायद पियक्कड़ न होने दे॥भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे.....
नए साल में आपके लिए भी यही मनोकामना और अभिलाषा कि आपका जीवन सुरमय हो सुरामय नही....वैसे एक-दो बार बहाने चल सकते हैं कोई गिला करे तो गा उठियेगा - नशेऽ में कौन नही हैऽऽ मुझे बतावो ज़रा..
Tuesday, December 18, 2007
काठ का कटोरा
भारतीय संसद ने एक विधेयक पास किया है कि यदि बच्चे माँ-बाप का ख्याल नही रखते तो सज़ा के भागी होंगे । पूरा विधेयक तो पढ़ा नही पर ख्याल के दायरे में अपने जीवनदाताओं के रहने-जीने का खर्च उठाना आता है शायद, भावनात्मक सुरक्षा की बात नही की गई है. एक वर्ष पहले महिलाओं के लिए ऐसा ही एक विधेयक आया था घरेलू हिंसा से सुरक्षा के सम्बन्ध में, उसमें काफी व्यापक प्रावधान थे, आर्थिक सुरक्षा के साथ भावनात्मक सुरक्षा की भी चिंता उसमें मौजूद थी.ऐसा ही एक विधेयक वृद्ध माता-पिता के लिए भी क्यूँ नही लाया जा सकता?क्या केवल सन्तानों से आर्थिक सुरक्षा पाकर अभिभावक संतुष्ट हो जाएँगे?संवेदनहीन सन्तानों को जागृति का चाँटा लगाने वाला मुन्नाभाई कहाँ से लाएंगे वो?
एक प्रसिद्ध कहानी है कि कलयुगी बहू के कहने में आकर बेटा अपनी माँ का सिर काटकर उसके पास ले जा रहा था.; रास्ते में ठोकर लगी तो माँ के कटे सिर से आवाज आई-"चोट तो नही लगी बेटा?"अपनी सन्तानों को इस कदर चाहने वाले माँ-बाप क्या अपनी गुजर के लिए उन्हें ट्राइब्यूनल तक लेकर जाएँगे? क्या उनका पुत्र-मोह उनके पैरों को जकड़ेगा नही?जिन बच्चों के कदम इतने भारी हैं कि अपने माँ-बाप की ओर नही मुड़ते उन बेशर्म पैरों को क्या ये ट्राइब्यूनल उनके जन्मदाताओं के घरों की ओर ले जा पाएँगे? कई सवाल हैं पर सबसे बड़ा सवाल यह कि हमारे समाज को क्या हुआ जा रहा है ? दादी की फिक्र में चिमटा लेने वाले हामिद कहाँ खो गए? क्या दोष उनके माँ-बाप का है जो ऐसे ही किसी एक दिन खेत-खलिहानों को रोता छोड़कर शहर की गलियों में आ बसे थे या फ़िर वो इतने आउटडेटेड हो गए हैं कि अपनी सन्तानों से तार नहीं जोड़ पा रहे? लिफाफा जेनरेशन इंटरनेट की गति नही थाम पा रहा !!!.....
संयुक्त परिवार का जादू टूट चुका है, एकल परिवारों के बच्चे अपने स्वर्णिम भविष्य को थामें दुनिया के चक्कर काटे जा रहे हैं और माँ-बाप पीछे कहीं रह गए हैं.... बेटों को बहूओं ने कहीं फाँस लिया तो कहीं किसी मल्टिनैशनल कम्पनी ने . एक तरफ़ वो ससुराल रुपी नाभिक का चक्कर काटता रहा तो दूसरी ओर सीप की तरह स्वाती नक्षत्र की बूँद के इंतेज़ार में अपने स्वर्णिम भविष्य के मोती का सपना लिए मुँह बाए खड़ा रहा. माँ-बाप राह तकते रहे अपनी सन्तानों का कभी नई-नई शादी हुई है तो कभी नई नौकरी कहकर.
लगभग ऐसी हालत में आस-पास में कितने ही घर रोज़ देखते होंगे हमसभी. बीमा-कम्पनियाँ भी अब इस भावनात्मक विडम्बना से भरे विज्ञापनों को दिखा कर युवा पीढी को उसके बुढापे से आगाह कराने में जुट चुकी हैं. सबकुछ हो रहा है ...ओल्ड-एज होम ,विधेयक ,सिनेमा पर परिवर्तन की जरूरत जिस जगह है वहाँ पर उसकी बहस क्यूं नही छिड़ रही? इस विधेयक से अब तो हर घर ओल्ड-एज होम हो जाएगा...पैसे भेजो ज़िम्मेदारी ख़त्म !!!! सामाजिक दायित्व कहाँ गया? हमारा अपना घर समाज की इकाई है जिसे जोड़ने से पहले पूरा समाज बनता है फ़िर देश. हमारे सांस्कृतिक मूल्य कहाँ छूट गए? श्रवण कुमार क्या गधा था या फ़िर भारी बेरोजगार जो अंधे माँ-बाप को लेकर तीर्थ-तीर्थ घूम रहा था?बेसहारा जन्मदाताओं का काँवर उठाने के लिए क्या अब एन.जी.ओ. की ओर देखेगी हमारी संस्कृति!!! हमारे महाकाव्यों के परिवार-विषयक मूल्य कहाँ गए? उनकी चर्चा किस विधेयक में होगी?......
एक प्रसिद्ध कहानी है कि कलयुगी बहू के कहने में आकर बेटा अपनी माँ का सिर काटकर उसके पास ले जा रहा था.; रास्ते में ठोकर लगी तो माँ के कटे सिर से आवाज आई-"चोट तो नही लगी बेटा?"अपनी सन्तानों को इस कदर चाहने वाले माँ-बाप क्या अपनी गुजर के लिए उन्हें ट्राइब्यूनल तक लेकर जाएँगे? क्या उनका पुत्र-मोह उनके पैरों को जकड़ेगा नही?जिन बच्चों के कदम इतने भारी हैं कि अपने माँ-बाप की ओर नही मुड़ते उन बेशर्म पैरों को क्या ये ट्राइब्यूनल उनके जन्मदाताओं के घरों की ओर ले जा पाएँगे? कई सवाल हैं पर सबसे बड़ा सवाल यह कि हमारे समाज को क्या हुआ जा रहा है ? दादी की फिक्र में चिमटा लेने वाले हामिद कहाँ खो गए? क्या दोष उनके माँ-बाप का है जो ऐसे ही किसी एक दिन खेत-खलिहानों को रोता छोड़कर शहर की गलियों में आ बसे थे या फ़िर वो इतने आउटडेटेड हो गए हैं कि अपनी सन्तानों से तार नहीं जोड़ पा रहे? लिफाफा जेनरेशन इंटरनेट की गति नही थाम पा रहा !!!.....
संयुक्त परिवार का जादू टूट चुका है, एकल परिवारों के बच्चे अपने स्वर्णिम भविष्य को थामें दुनिया के चक्कर काटे जा रहे हैं और माँ-बाप पीछे कहीं रह गए हैं.... बेटों को बहूओं ने कहीं फाँस लिया तो कहीं किसी मल्टिनैशनल कम्पनी ने . एक तरफ़ वो ससुराल रुपी नाभिक का चक्कर काटता रहा तो दूसरी ओर सीप की तरह स्वाती नक्षत्र की बूँद के इंतेज़ार में अपने स्वर्णिम भविष्य के मोती का सपना लिए मुँह बाए खड़ा रहा. माँ-बाप राह तकते रहे अपनी सन्तानों का कभी नई-नई शादी हुई है तो कभी नई नौकरी कहकर.
लगभग ऐसी हालत में आस-पास में कितने ही घर रोज़ देखते होंगे हमसभी. बीमा-कम्पनियाँ भी अब इस भावनात्मक विडम्बना से भरे विज्ञापनों को दिखा कर युवा पीढी को उसके बुढापे से आगाह कराने में जुट चुकी हैं. सबकुछ हो रहा है ...ओल्ड-एज होम ,विधेयक ,सिनेमा पर परिवर्तन की जरूरत जिस जगह है वहाँ पर उसकी बहस क्यूं नही छिड़ रही? इस विधेयक से अब तो हर घर ओल्ड-एज होम हो जाएगा...पैसे भेजो ज़िम्मेदारी ख़त्म !!!! सामाजिक दायित्व कहाँ गया? हमारा अपना घर समाज की इकाई है जिसे जोड़ने से पहले पूरा समाज बनता है फ़िर देश. हमारे सांस्कृतिक मूल्य कहाँ छूट गए? श्रवण कुमार क्या गधा था या फ़िर भारी बेरोजगार जो अंधे माँ-बाप को लेकर तीर्थ-तीर्थ घूम रहा था?बेसहारा जन्मदाताओं का काँवर उठाने के लिए क्या अब एन.जी.ओ. की ओर देखेगी हमारी संस्कृति!!! हमारे महाकाव्यों के परिवार-विषयक मूल्य कहाँ गए? उनकी चर्चा किस विधेयक में होगी?......
Monday, December 10, 2007
स्लेट
जोरों की सर्दी ने शरीर को जकड़ रक्खा था । इन्ही कुछ लम्हों में बेरोजगारी के असीम फायदे नज़र आने लगते हैं । छुट्टियों की दफ्तरी माथापच्ची से निश्चिंत अपनी मर्जी से अपने आराम का वक़्त तय किया और छत पर रखी चौकी पर बिछी मोटी लाल दरी पर पसर गया । अलगनी पर सूख रही चादर को ऐसे एडजस्ट किया ताकि धूप सिर्फ बदन को अपनी गर्मी देती रहे पर चेहरा रौशनी से बचा रहे । इस तरह मद्धम-मद्धम धूप को अपने में उतारना शुरू किया ही था कि पड़ोस की छत पर बच्चों का खेल-कूद चालू हो गया । उनकी उछलकूद से न तो नींद ही आ पा रही और न ही इस धूप को छोड़ कर नीचे जाने का मन हो रहा था । माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कितनी निश्चिन्तता का अनुभव करते होंगे इसका अंदाजा मैं लेटे-लेटे लगाने कि कोशिश करने लगा ...विचारों की रेल-पेल चल निकली तब ध्यान आया कि आजकल के बच्चे स्कूल जाते वक़्त रोते नही,इतने खुश होकर स्कूल जाते हैं कि हैरत होती है!!प्ले स्कूल का कांसेप्ट कारगर है इतना तो पता चल ही गया ।
अपनी याद भी आई ...बुक्काफाड़ रुलाई और ज़मीन पर लोटपोट होने से लेकर थोड़ा होश सम्भालने पर कई तरह के बहाने तलाशते थे कि स्कूल न जाना पड़े .हमारा फेवरेट बहाना था पेट-दर्द और सिर-दर्द का । पेट दर्द का तो अलबत्ता अहसास था पर उस उम्र में सिर-दर्द तो जाना भी नही था बस बड़ो को बोलते भर सुना था । आज जब बच्चों को हँसते-गाते स्कूल जाते देखता हूँ तो लगता है कि जैसे हमारा बचपन कहीं खो गया ।एक रोज़ एक स्कूली बच्चे को जार-जार रोते देखा तो लगा जैसे कहीं कुछ जुड़ सा गया .ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे बुजुर्ग पुराने गानों को देख-सुन कर अपने बीते दिनों को जी लेते हैं ।
पढ़ने-पढाने के तरीके काफी बदले हैं और स्कूल ज्यादा आकर्षक भी हो गए हैं.Spare the rod and spoil the child की उक्ति पर भरोसा करने वाले कम ही रह गए हैं .वैसे भी आजकल के अभिभावक अपने बच्चों पर मास्टर के हाथ उठाने पर ऐसा वितंडा मचाते हैं कि खुद बच्चे शरमा जाएं.....शिक्षा उनके लिए एक उत्पाद भर बन कर रह गई है और मास्टर एक मजदूर जो उनके नौनिहालों के लिए उसका उत्पादन करता है और एक मजदूर कि ये मजाल कि वो उनके बच्चो पर हाथ उठा दे!!!!
वैसे मास्टर भी नही रहे जो यह जानकर कि फलनवा बाबू का लड़का बिगड़ रहा है उसकेचरित्र निर्माण के लिए सजग होकर और अपने को उसके बाप की जगह रखकर कटिबद्ध हो जाएं फ़िर उसकी बेतोंसे पूजा ही क्यूँ न करनी पड़े .वो भी अपनी पगार लेते हैं; बच्चों और उनके माता-पिता को मस्का लगाते हैं कि कहीं से किसी ट्यूशन का जुगाड़ हो जाए । बड़े शहरों के स्कूलों में थोड़े कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र प्रायः अपने शिक्षकों का ध्यान अपनी ओर लाने में असफल ही रहते हैं क्यूँकि वो उनकी ट्यूशन अफोर्ड नही कर सकते !!
छात्र-शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता उपभोक्तावादी दौर में प्रवेश कर गया लगता है जहाँ चारित्रिक-मूल्यों के बजाय दमड़ी प्रधान हो उठी है. निराशावादी नही हूँ और जानता हूँ कि समर्पित कार्यकर्ता दिन-रात अपने भगीरथ प्रयत्नों से नवीन पीढ़ी को ऊर्जावान और सुशील बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं. आशावान हूँ कि इनके सद्प्रयासों से गुदड़ी बनी रहेगी और उसमे से लाल भी निकलते रहेंगे .
अपनी याद भी आई ...बुक्काफाड़ रुलाई और ज़मीन पर लोटपोट होने से लेकर थोड़ा होश सम्भालने पर कई तरह के बहाने तलाशते थे कि स्कूल न जाना पड़े .हमारा फेवरेट बहाना था पेट-दर्द और सिर-दर्द का । पेट दर्द का तो अलबत्ता अहसास था पर उस उम्र में सिर-दर्द तो जाना भी नही था बस बड़ो को बोलते भर सुना था । आज जब बच्चों को हँसते-गाते स्कूल जाते देखता हूँ तो लगता है कि जैसे हमारा बचपन कहीं खो गया ।एक रोज़ एक स्कूली बच्चे को जार-जार रोते देखा तो लगा जैसे कहीं कुछ जुड़ सा गया .ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे बुजुर्ग पुराने गानों को देख-सुन कर अपने बीते दिनों को जी लेते हैं ।
पढ़ने-पढाने के तरीके काफी बदले हैं और स्कूल ज्यादा आकर्षक भी हो गए हैं.Spare the rod and spoil the child की उक्ति पर भरोसा करने वाले कम ही रह गए हैं .वैसे भी आजकल के अभिभावक अपने बच्चों पर मास्टर के हाथ उठाने पर ऐसा वितंडा मचाते हैं कि खुद बच्चे शरमा जाएं.....शिक्षा उनके लिए एक उत्पाद भर बन कर रह गई है और मास्टर एक मजदूर जो उनके नौनिहालों के लिए उसका उत्पादन करता है और एक मजदूर कि ये मजाल कि वो उनके बच्चो पर हाथ उठा दे!!!!
वैसे मास्टर भी नही रहे जो यह जानकर कि फलनवा बाबू का लड़का बिगड़ रहा है उसकेचरित्र निर्माण के लिए सजग होकर और अपने को उसके बाप की जगह रखकर कटिबद्ध हो जाएं फ़िर उसकी बेतोंसे पूजा ही क्यूँ न करनी पड़े .वो भी अपनी पगार लेते हैं; बच्चों और उनके माता-पिता को मस्का लगाते हैं कि कहीं से किसी ट्यूशन का जुगाड़ हो जाए । बड़े शहरों के स्कूलों में थोड़े कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र प्रायः अपने शिक्षकों का ध्यान अपनी ओर लाने में असफल ही रहते हैं क्यूँकि वो उनकी ट्यूशन अफोर्ड नही कर सकते !!
छात्र-शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता उपभोक्तावादी दौर में प्रवेश कर गया लगता है जहाँ चारित्रिक-मूल्यों के बजाय दमड़ी प्रधान हो उठी है. निराशावादी नही हूँ और जानता हूँ कि समर्पित कार्यकर्ता दिन-रात अपने भगीरथ प्रयत्नों से नवीन पीढ़ी को ऊर्जावान और सुशील बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं. आशावान हूँ कि इनके सद्प्रयासों से गुदड़ी बनी रहेगी और उसमे से लाल भी निकलते रहेंगे .
Friday, December 7, 2007
दो बातें
ब्लॉग लेखन की प्रेरणा अपने भाई से मिली . कुछ सुन सा रखा था के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सही मायने में अब जाकर मिली है ब्लॉग कल्चर के ज़रिये . देखता हूँ सही ही है ।
मुज़फ्फ़रपुर(बिहार) में रेलवे कॉलनी में बचपन जिया , भरपूर जिया ........ आपस में झगड़ती बेलों का लबादा ओढ़े जवान बरगद के अन्दर लुकाछिप्पी खेलना हो या फ़िर नीम की टहनी से झूलकर आसपड़ोस का हवाई नज़ारा लेना.............एक बार एक काले कौवे ने अच्छी ख़बर ली थी मेरी . उसका घोंसला उसी नीम पर था और ये पढने के बाद कि कोयल उसके घोंसले में अपना अंडा चुपके से रख जाती है मैं थोड़ी छानबीन के मूड में था.....
साथी संगी भी कमाल के मिले .एक विशेष बात थी के कोई भी एक दूसरे का नाम बिना "सिंघ" लगाये नही लेता था मसलन- पप्पू सिंघ , गूंजा सिंघ ..और तो और हमने बचपन में ही नारी समता का पाठ पढ़ते हुए लड़कियों के नाम के साथ भी पूरी इमानदारी से सिंघ टाइटल का प्रयोग किया था .............हमारे दल में सभी बराबर थे ..
खेल कूद और शैतानियाँ कई बार ज़्यादा हो जाती थीं और तब याद आने लगता था पापा की डांट और कभी कभी होने वाली पिटाई .....डाँट खाते वक्त हमें कई उपाधियों से नवाजा जाता था जिसमें दो हमारे साथ नत्थी से हो गए थे ; एक तो था "चोट्टा" और दूसरा था "कल्लर"......यही कल्लर की उपाधि ब्लॉग के नाम में इस्तेमाल की है .
कल्लर रेलवे स्टेशन के आसपास रहने वाले बेघरबार लोग थे .पार्सल ऑफिस के आहाते में अपना टेंट लगा लेते थे.... हर वो मुमकिन वस्तु जिससे टेंट का कोई कोना बन सके वहाँ इस्तेमाल हो जाती थी. पुरानी जंग लगी लावारिस जीप कभी एक दिवार का काम दे जाती तो एक ओर खड़ी टूटी-फूटी 'यज्दी' मोटरबाइक उनके सामानों को टांगने की अलगनी....वे और उनके बच्चे कूड़ा बीनते थे और अक्सर पार्सल होने वाले सामानों में से हाथ मार लिया करते थे . कभी चाय की पत्ती किसी कार्टन में से सुराख कर निकाल लिया कभी पॉल्ट्री के रंग लगे चूजों पर हाथ साफ ...मतलब कि हमारे आसपास रहने वालों में उन कल्लरों से जब किसी की तुलना हो तब समझ लीजिये किअभिभावक अपनी सन्तान को नरक का भय ही दिखा रहा होता था .मेरी कारगुजारियों के चलते ये उपाधि मेरे साथ चस्पा सी हो गई और आज अपने इस ब्लॉग के लिए उसी उपाधि का उपयोग कर रहा हूँ..मक्सिम गोर्की रचित 'मेरा बचपन' की सी गर्माहट ये नाम मुझमे भर जाता है.....
आप सबका इस कल्लर के टेंट में स्वागत है .
मुज़फ्फ़रपुर(बिहार) में रेलवे कॉलनी में बचपन जिया , भरपूर जिया ........ आपस में झगड़ती बेलों का लबादा ओढ़े जवान बरगद के अन्दर लुकाछिप्पी खेलना हो या फ़िर नीम की टहनी से झूलकर आसपड़ोस का हवाई नज़ारा लेना.............एक बार एक काले कौवे ने अच्छी ख़बर ली थी मेरी . उसका घोंसला उसी नीम पर था और ये पढने के बाद कि कोयल उसके घोंसले में अपना अंडा चुपके से रख जाती है मैं थोड़ी छानबीन के मूड में था.....
साथी संगी भी कमाल के मिले .एक विशेष बात थी के कोई भी एक दूसरे का नाम बिना "सिंघ" लगाये नही लेता था मसलन- पप्पू सिंघ , गूंजा सिंघ ..और तो और हमने बचपन में ही नारी समता का पाठ पढ़ते हुए लड़कियों के नाम के साथ भी पूरी इमानदारी से सिंघ टाइटल का प्रयोग किया था .............हमारे दल में सभी बराबर थे ..
खेल कूद और शैतानियाँ कई बार ज़्यादा हो जाती थीं और तब याद आने लगता था पापा की डांट और कभी कभी होने वाली पिटाई .....डाँट खाते वक्त हमें कई उपाधियों से नवाजा जाता था जिसमें दो हमारे साथ नत्थी से हो गए थे ; एक तो था "चोट्टा" और दूसरा था "कल्लर"......यही कल्लर की उपाधि ब्लॉग के नाम में इस्तेमाल की है .
कल्लर रेलवे स्टेशन के आसपास रहने वाले बेघरबार लोग थे .पार्सल ऑफिस के आहाते में अपना टेंट लगा लेते थे.... हर वो मुमकिन वस्तु जिससे टेंट का कोई कोना बन सके वहाँ इस्तेमाल हो जाती थी. पुरानी जंग लगी लावारिस जीप कभी एक दिवार का काम दे जाती तो एक ओर खड़ी टूटी-फूटी 'यज्दी' मोटरबाइक उनके सामानों को टांगने की अलगनी....वे और उनके बच्चे कूड़ा बीनते थे और अक्सर पार्सल होने वाले सामानों में से हाथ मार लिया करते थे . कभी चाय की पत्ती किसी कार्टन में से सुराख कर निकाल लिया कभी पॉल्ट्री के रंग लगे चूजों पर हाथ साफ ...मतलब कि हमारे आसपास रहने वालों में उन कल्लरों से जब किसी की तुलना हो तब समझ लीजिये किअभिभावक अपनी सन्तान को नरक का भय ही दिखा रहा होता था .मेरी कारगुजारियों के चलते ये उपाधि मेरे साथ चस्पा सी हो गई और आज अपने इस ब्लॉग के लिए उसी उपाधि का उपयोग कर रहा हूँ..मक्सिम गोर्की रचित 'मेरा बचपन' की सी गर्माहट ये नाम मुझमे भर जाता है.....
आप सबका इस कल्लर के टेंट में स्वागत है .
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