Monday, December 10, 2007

स्लेट

जोरों की सर्दी ने शरीर को जकड़ रक्खा था । इन्ही कुछ लम्हों में बेरोजगारी के असीम फायदे नज़र आने लगते हैं । छुट्टियों की दफ्तरी माथापच्ची से निश्चिंत अपनी मर्जी से अपने आराम का वक़्त तय किया और छत पर रखी चौकी पर बिछी मोटी लाल दरी पर पसर गया । अलगनी पर सूख रही चादर को ऐसे एडजस्ट किया ताकि धूप सिर्फ बदन को अपनी गर्मी देती रहे पर चेहरा रौशनी से बचा रहे । इस तरह मद्धम-मद्धम धूप को अपने में उतारना शुरू किया ही था कि पड़ोस की छत पर बच्चों का खेल-कूद चालू हो गया । उनकी उछलकूद से न तो नींद ही आ पा रही और न ही इस धूप को छोड़ कर नीचे जाने का मन हो रहा था । माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कितनी निश्चिन्तता का अनुभव करते होंगे इसका अंदाजा मैं लेटे-लेटे लगाने कि कोशिश करने लगा ...विचारों की रेल-पेल चल निकली तब ध्यान आया कि आजकल के बच्चे स्कूल जाते वक़्त रोते नही,इतने खुश होकर स्कूल जाते हैं कि हैरत होती है!!प्ले स्कूल का कांसेप्ट कारगर है इतना तो पता चल ही गया ।

अपनी याद भी आई ...बुक्काफाड़ रुलाई और ज़मीन पर लोटपोट होने से लेकर थोड़ा होश सम्भालने पर कई तरह के बहाने तलाशते थे कि स्कूल न जाना पड़े .हमारा फेवरेट बहाना था पेट-दर्द और सिर-दर्द का । पेट दर्द का तो अलबत्ता अहसास था पर उस उम्र में सिर-दर्द तो जाना भी नही था बस बड़ो को बोलते भर सुना था । आज जब बच्चों को हँसते-गाते स्कूल जाते देखता हूँ तो लगता है कि जैसे हमारा बचपन कहीं खो गया ।एक रोज़ एक स्कूली बच्चे को जार-जार रोते देखा तो लगा जैसे कहीं कुछ जुड़ सा गया .ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे बुजुर्ग पुराने गानों को देख-सुन कर अपने बीते दिनों को जी लेते हैं ।


पढ़ने-पढाने के तरीके काफी बदले हैं और स्कूल ज्यादा आकर्षक भी हो गए हैं.Spare the rod and spoil the child की उक्ति पर भरोसा करने वाले कम ही रह गए हैं .वैसे भी आजकल के अभिभावक अपने बच्चों पर मास्टर के हाथ उठाने पर ऐसा वितंडा मचाते हैं कि खुद बच्चे शरमा जाएं.....शिक्षा उनके लिए एक उत्पाद भर बन कर रह गई है और मास्टर एक मजदूर जो उनके नौनिहालों के लिए उसका उत्पादन करता है और एक मजदूर कि ये मजाल कि वो उनके बच्चो पर हाथ उठा दे!!!!

वैसे मास्टर भी नही रहे जो यह जानकर कि फलनवा बाबू का लड़का बिगड़ रहा है उसकेचरित्र निर्माण के लिए सजग होकर और अपने को उसके बाप की जगह रखकर कटिबद्ध हो जाएं फ़िर उसकी बेतोंसे पूजा ही क्यूँ न करनी पड़े .वो भी अपनी पगार लेते हैं; बच्चों और उनके माता-पिता को मस्का लगाते हैं कि कहीं से किसी ट्यूशन का जुगाड़ हो जाए । बड़े शहरों के स्कूलों में थोड़े कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र प्रायः अपने शिक्षकों का ध्यान अपनी ओर लाने में असफल ही रहते हैं क्यूँकि वो उनकी ट्यूशन अफोर्ड नही कर सकते !!

छात्र-शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता उपभोक्तावादी दौर में प्रवेश कर गया लगता है जहाँ चारित्रिक-मूल्यों के बजाय दमड़ी प्रधान हो उठी है. निराशावादी नही हूँ और जानता हूँ कि समर्पित कार्यकर्ता दिन-रात अपने भगीरथ प्रयत्नों से नवीन पीढ़ी को ऊर्जावान और सुशील बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं. आशावान हूँ कि इनके सद्प्रयासों से गुदड़ी बनी रहेगी और उसमे से लाल भी निकलते रहेंगे .

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