Tuesday, December 18, 2007

काठ का कटोरा

भारतीय संसद ने एक विधेयक पास किया है कि यदि बच्चे माँ-बाप का ख्याल नही रखते तो सज़ा के भागी होंगे । पूरा विधेयक तो पढ़ा नही पर ख्याल के दायरे में अपने जीवनदाताओं के रहने-जीने का खर्च उठाना आता है शायद, भावनात्मक सुरक्षा की बात नही की गई है. एक वर्ष पहले महिलाओं के लिए ऐसा ही एक विधेयक आया था घरेलू हिंसा से सुरक्षा के सम्बन्ध में, उसमें काफी व्यापक प्रावधान थे, आर्थिक सुरक्षा के साथ भावनात्मक सुरक्षा की भी चिंता उसमें मौजूद थी.ऐसा ही एक विधेयक वृद्ध माता-पिता के लिए भी क्यूँ नही लाया जा सकता?क्या केवल सन्तानों से आर्थिक सुरक्षा पाकर अभिभावक संतुष्ट हो जाएँगे?संवेदनहीन सन्तानों को जागृति का चाँटा लगाने वाला मुन्नाभाई कहाँ से लाएंगे वो?

एक प्रसिद्ध कहानी है कि कलयुगी बहू के कहने में आकर बेटा अपनी माँ का सिर काटकर उसके पास ले जा रहा था.; रास्ते में ठोकर लगी तो माँ के कटे सिर से आवाज आई-"चोट तो नही लगी बेटा?"अपनी सन्तानों को इस कदर चाहने वाले माँ-बाप क्या अपनी गुजर के लिए उन्हें ट्राइब्यूनल तक लेकर जाएँगे? क्या उनका पुत्र-मोह उनके पैरों को जकड़ेगा नही?जिन बच्चों के कदम इतने भारी हैं कि अपने माँ-बाप की ओर नही मुड़ते उन बेशर्म पैरों को क्या ये ट्राइब्यूनल उनके जन्मदाताओं के घरों की ओर ले जा पाएँगे? कई सवाल हैं पर सबसे बड़ा सवाल यह कि हमारे समाज को क्या हुआ जा रहा है ? दादी की फिक्र में चिमटा लेने वाले हामिद कहाँ खो गए? क्या दोष उनके माँ-बाप का है जो ऐसे ही किसी एक दिन खेत-खलिहानों को रोता छोड़कर शहर की गलियों में आ बसे थे या फ़िर वो इतने आउटडेटेड हो गए हैं कि अपनी सन्तानों से तार नहीं जोड़ पा रहे? लिफाफा जेनरेशन इंटरनेट की गति नही थाम पा रहा !!!.....

संयुक्त परिवार का जादू टूट चुका है, एकल परिवारों के बच्चे अपने स्वर्णिम भविष्य को थामें दुनिया के चक्कर काटे जा रहे हैं और माँ-बाप पीछे कहीं रह गए हैं.... बेटों को बहूओं ने कहीं फाँस लिया तो कहीं किसी मल्टिनैशनल कम्पनी ने . एक तरफ़ वो ससुराल रुपी नाभिक का चक्कर काटता रहा तो दूसरी ओर सीप की तरह स्वाती नक्षत्र की बूँद के इंतेज़ार में अपने स्वर्णिम भविष्य के मोती का सपना लिए मुँह बाए खड़ा रहा. माँ-बाप राह तकते रहे अपनी सन्तानों का कभी नई-नई शादी हुई है तो कभी नई नौकरी कहकर.

लगभग ऐसी हालत में आस-पास में कितने ही घर रोज़ देखते होंगे हमसभी. बीमा-कम्पनियाँ भी अब इस भावनात्मक विडम्बना से भरे विज्ञापनों को दिखा कर युवा पीढी को उसके बुढापे से आगाह कराने में जुट चुकी हैं. सबकुछ हो रहा है ...ओल्ड-एज होम ,विधेयक ,सिनेमा पर परिवर्तन की जरूरत जिस जगह है वहाँ पर उसकी बहस क्यूं नही छिड़ रही? इस विधेयक से अब तो हर घर ओल्ड-एज होम हो जाएगा...पैसे भेजो ज़िम्मेदारी ख़त्म !!!! सामाजिक दायित्व कहाँ गया? हमारा अपना घर समाज की इकाई है जिसे जोड़ने से पहले पूरा समाज बनता है फ़िर देश. हमारे सांस्कृतिक मूल्य कहाँ छूट गए? श्रवण कुमार क्या गधा था या फ़िर भारी बेरोजगार जो अंधे माँ-बाप को लेकर तीर्थ-तीर्थ घूम रहा था?बेसहारा जन्मदाताओं का काँवर उठाने के लिए क्या अब एन.जी.ओ. की ओर देखेगी हमारी संस्कृति!!! हमारे महाकाव्यों के परिवार-विषयक मूल्य कहाँ गए? उनकी चर्चा किस विधेयक में होगी?......

2 comments:

Anonymous said...

bahut accha likha hai.

अपने से बाहर... said...

अत्यंत संवेदनशील लेख...एक बार पुनः बधाई और शुभकामनाएँ...कल्लर का कमाल जारी रहे